“जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर, भगवान पार्श्वनाथ ने अपने एक पूर्व जन्म में मरुभूति नामक व्यक्ति के रूप में जन्म लिया था। उसी जन्म में उनके बड़े भाई कमठ ने द्वेषवश उनकी हत्या कर दी। यह वैरभाव कई जन्मों तक चलता रहा। उनके तीर्थंकर जन्म में, जब भगवान पार्श्वनाथ कठोर साधना में लीन थे, तब कमठ ने उन पर घोर उपसर्ग किया और घनघोर वर्षा, आँधी-तूफ़ान और विषधर सर्पों से उन्हें विचलित करने का प्रयास किया।”
“कठोर उपसर्गों के बीच भी भगवान पार्श्वनाथ अडिग ध्यानस्थ रहे। न उनका मन डगमगाया, न उनकी साधना में कोई विचलन आया। करुणा और क्षमा से पूर्ण उनके हृदय का तेज ही था, जिसने परिस्थितियों को निस्तेज कर दिया। तभी नागराज धरणेन्द्र और उनकी पत्नी पद्मावती प्रकट हुए। उन्होंने अपने विशाल फण फैलाकर प्रचण्ड वर्षा और तूफ़ान से भगवान की रक्षा की। यह प्रसंग हमें स्मरण कराता है कि सच्चा साधक विपरीत परिस्थितियों में भी शांत और क्षमावान रहता है। क्षमा ही वीरों का आभूषण है; यही शक्ति हमारे कठोरतम उपसर्गों को शांत करती है और मुक्ति के द्वार खोलती है।”
अनंत काल से चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए, अपने अज्ञान और मोह के कारण हमने जाने-अनजाने में अनेक जीवों को कष्ट पहुँचाया है। मन, वचन और काया से हुई उन सभी भूलों के लिए, आज इस पावन पर्व पर, हम जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर, भगवान पार्श्वनाथ के चरणों में बैठकर, उन सभी जीवों से हृदय से क्षमा याचना करते हैं। क्षमा की महत्ता ही हमारे जीवन को निर्मल और शांत बनाती है।
क्षमा के इस पर्व पर, हम सभी से क्षमा मांगते हैं और सभी को क्षमा करते हैं।
मिच्छामी दुक्कड़म्
क्षमाप्रार्थी
डॉ. अरविंद संघवी - आशा संघवी
सिद्धार्थ संघवी - नेहा संघवी
निर्जरा - व्युत्सर्ग संघवी